क्या कभी बेकार जाता है शहीदों का लहू / उर्मिल सत्यभूषण
क्या कभी बेकार जाता है शहीदों का लहू
इक न इक दिन रंग लाता है शहीदों का लहू
खून के क़तरे समाते हैं धरा में बीज बन
वृक्ष बनकर लौट आता है शहीदों का लहू
बीज हैं दाड़िम के ये या उग रहीं चिंगारियां
आग के बिरवे लगाता है शहीदों का लहू
कौन कहता है कि वो इक आदमी था मर गया
मर के भी अमरत्व पाता है शहीदों का लहू
जुल्म के जंगल में आज़ादी की क़ीमत जानता
प्राण अपने दे चुकाता है शहीदों का लहू
प्राण देकर फूंकता है प्राण वो मृत क़ौम में
जोश की फसलें उगाता है शहीदों का लहू
दौड़ता रग रग में जिसकी खून यह उस देश में
सैंकड़ों सूरज उगाता है शहीदों का लहू
वह किसी कारण बहा हो सिर झुकाता आदमी
आंसुओं का अर्ध्य पाता है शहीदों का लहू
कौम मिट सकती नहीं उर्मिल वो रहती है सदा
जिसके दामन में समाता है शहीदों का लहू।