क्या करें? / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
उनकी काली करतूतों पर
हम कोई आवाज नहीं उठाते
हम कोई कलम नहीं चलाते
हम आँख मिलाने से हैं कतराते
भय ने हमारे होंठ सिल दिए हैं
डर से हमारे हाथ काँपते हैं
हमारे विचार थरथराते हैं
दूर कहीं दुबक-दुबक जाते हैं
विरोध की आवाज
गले में आने से पहले ही
अंधकूप में लौट जाती है
अपनी ही अनुगूँज सुनाती है
क्या करें?
कि ये सन्नाटा टूटे
क्या करें?
कि हाथ कलम उठाए
क्या करे?
कि व्यवस्था चल पाए
क्या करें?
कि सांस ले सकें खुली हवा मंे
इन उलझे-पुलझे विचारों को सुलझाना
भय से मुक्ति पाना
कितना कठिन है
अपनी असुरक्षा और निराशा
हर बार नीचे गिराती है
क्या करें?
कहाँ हाथ उठायें?
किससे दुआ करें?
या निकाल लें तलवार
खुद को शहीद बनाने के लिए
एक चिड़िया दूर कहीं चहचहाती है
सन्नाटे को भेद
आवाज गूँज-गूँज जाती है
शब्द का सहारा ही
भय से मुक्ति दिलाएगा
मौत का दिन निश्चित है एक
इसको दृढ़ कर जाएगा।