क्या करें राम जब भाग्य बनवास है / पीयूष शर्मा
चंदिनी देह क्षण-क्षण व्यथित हो रही
भावना मूक वन में कहीं सो रही
तात को देख कर रो रहे हैं नयन
सत्य करने चले पर पिता का वचन
एक पल में अवध में तिमिर छा गया
मौन का रूप सुंदर भवन पा गया
पीर के तीर हर ओर चलने लगे
मातु के मन-हृदय दर्द पलने लगे
देवता का यही सत्य विश्वास है
क्या करें राम जब भाग्य बनवास है।
किंतु वन राम को धन्य पाकर हुआ
कष्ट का कूप भी प्रेम सागर हुआ
प्रभु चले जिस दिशा फूल खिलने लगे
जो हुए थे पृथक हाथ मिलने लगे
तार दी पापियों की सकल मंडली
गंध उड़ने लगी संदली-संदली
पाप की छांव पर धूप सुख की पड़ी
चाँदनी पुण्य का वस्त्र लेकर खड़ी
दिव्यता का यही सत्य आभास है
क्या करें राम जब भाग्य बनवास है।
बाद चौदह बरस शुभ घड़ी आ गई
दीप की रोशनी हर तरफ छा गई
पूर्ण कर के पिता का वचन आ गए
राम के संग सीता लखन आ गए
आज भाई भरत के द्रवित हैं नयन
शत्रुघ्न कह रहे लो संभालो चमन
इस धरा पर लिया जन्म उपकार है
राम मय हो गया सर्व संसार है
इस अमर गीत से धर्म की आस है
क्या करें राम जब भाग्य बनवास है।