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क्या करें / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
Kavita Kosh से
सूखता ही
जा रहा उद्गम अहर्निश
दूर तक
फैली हुई
रेत की लंबी नदी, क्या करें!
अधरों तक
आ पहुँची
आग मन की,
थरथराकर
रह गई हैं
साँसें तन की
खून की
प्यासी बनी
बेरहम बहरी सदी, क्या करें!
आरोप ही
हर प्रश्न का
उत्तर बना
मन की बातें
सच कहना है मना
फौज बौनों की
ठगी-सी,
बेचैन है खड़ी, क्या करें!
(4-6-98: विश्व ज्योति जनवरी 99)