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क्या कहूं आज ही विगत निशा के सपने में आये थे प्रिय / प्रेम नारायण 'पंकिल'

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क्या कहूं आज ही विगत निशा के सपने में आये थे प्रिय !
तुम करते-करते सुरत प्रार्थना किंचित सकुचाये थे प्रिय !
मुझमें उड़ेल दी अपने चिर यौवन की अल्हड़ मादकता ।
दृग-तट पर दिया उतार हंस, थी पलकों पर गूंथी मुक्ता ।
अभिसार-सदन में दीपक की लौ उकसाया हौले-हौले ।
इतने भावाभिभूत थे प्रिय फ़िर अधर नहीं तेरे बोले ।
उस प्राणेश्वर को ढूंढ़ रही बावरिया बरसाने वाली -
क्या प्राण निकलने पर आओगे जीवनवन के वनमाली ॥40॥