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क्या कहूं / हरीश भादानी

क्या कहूं
कैसे कहूं
इस सरफिरी बरसात से
कि जब बनाए
आंख में ही घर बनाए
और आंख से तो
सम्हाले भी नहीं सम्हले
यह घर
बाहर आ-आकर खिरे
कलझल बिखर
सूख जाए
सूनी निपट सूनी ही रहे है आंख

मेरी न माने
देख सुन तो ले उसे भी
वह बुलाए
मनुहारें करे बरसों
अनसुना रहने का
उसका दुख
छटपटा कर
हूंकता बिफरता है
थका पसरा
कहे ही जा रहा है
मांड मुझ पर मांड
मांड तो सही
इस बार
ओ री सरफिरी बरसात
सूख कर दरके हुए
चौड़े कलेजे पर
घर मांड अपना
            
अगस्त’ 78