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क्या किया? / बसन्तजीत सिंह हरचंद
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प्रभो ! क्या किया ?
एक हंस को हम कौओं में जन्म दे दिया ।
कहीं और होना था , यह क्या यहाँ कर रहा ?
इससे हर कौआ भीतर से बहुत डर रहा ;
इसकी उज्ज्वलता से जलता क्षुभित हो हिया ।
शरीर से ना हम अंतर्मन से भी काले ,
सड़े - गले ढोरों को खाते हो मतवाले ;
इसने हम - सा कुत्सित जीवन कभी ना जिया ।
क्यों हम जैसा कपट - कुशल औ' धूर्त नहीं यह ?
कोई भ्रम अथवा विभ्रम तो नहीं कहीं यह ?
मध्य हमारे क्यों इसने वनवास ले लिया ?
घेर - घेरकर चोंच मार हम इसे नोचते ,
करतूतों के अपमानों से धर दबोचते ;
रहे चाहते इसे भगाना करके दुखिया ।
इसकी प्रतिभा -शुभ्र -विवेकी शुभोत्साह है ,
हमारा हर इक पंख दुष्टता से स्याह है ;
यह हम में ज्यों प्रकाश देता तिमिर में दिया ।।