क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में / मीर 'तस्कीन' देहलवी
क्या क्या मज़े से रात की अहद-ए-शबाब में
छोडूँ न उम्र ए रफ़्ता गर आ जाए ख़्वाब में
इक दिल के वास्ते ये फँसे वो अज़ाब में
रहते हैं अपनी ज़ुल्फ़ ही के पेच-ओ-ताब में
है शौक़-ए-वस्ल तुझ से लिपटता हूँ बार बार
वरना ये मस्तियाँ तो नहीं थीं शराब में
इतनी न कीजे जाने की जल्दी शब-ए-विसाल
देखे हैं मैं ने काम बिगड़ते शिताब में
हो जाए चाक सीना के दिल घुट के मर चला
ऐ चारा-जू किसी को फँसा मत अज़ाब में
कर बहर ओ बर की हस्ती-ए-मौहूम पर नज़र
थोड़ी सी ख़ाक डाल डी चश्म-ए-पुर-आब में
तब क़त्ल-गह में क़त्ल-ए-उदू को चले हैं वो
मेरा लहू मिला के पिया जब शराब में
किन महनतों से वस्ल पे राज़ी हुए हैं वो
सौ नाम-बर हुए जो सवाल ओ जवाब में
अख़्तर-शुमारियों में निकलमा है दम कहीं
‘तस्कीं’ तुम्हीं को दख़्ल नहीं है हिसाब में