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क्या ख़बर थी के कभी बे-सर-ओ-सामाँ होंगे / 'बाकर' मेंहदी

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क्या ख़बर थी के कभी बे-सर-ओ-सामाँ होंगे
फ़स्ल-ए-गुल आते ही इस तरह से वीराँ होंगे

दर-ब-दर फिरते रहे ख़ाक उड़ाते गुज़री
वहशत-ए-दिल तेरे क्या और भी एहसाँ होंगे

राख होने लगीं जल जल के तमन्नाएँ मगर
हसरतें कहती हैं कुछ और भी अरमाँ होंगे

ये तो आग़ाज-ए-मसाइब है न घबरा ऐ दिल
हम अभी और अभी और परेशां होंगे

मेरी दुनिया में तेरे हुस्न की रानाई है
तेरे सीने में मेरे इश्‍क़ के तूफ़ाँ होंगे

काफ़री इश्‍क़ का शेवा है मगर तेरे लिए
इस नए दौर में हम फिर से मुसलमाँ होंगे

लाख दुश्‍वार हो मिलना मगर ऐ जान-ए-जहाँ
तुझ से मिलने के इसी दौर में इमकाँ होंगे

तू इन्हीं शेरों पे झूमेगी ब-अंदाज़-ए-दीगर
हम तेरी बज़्म में इक रोज़ ग़ज़ल-ख़्वाँ होंगें