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क्या खोया क्या पाया? / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही

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बैठा एक डाल पर पाँखी
सारी रात
बहुत रोया है।

अभी कुछ दिनों
इस झुरमुट में
सोहर थी
कुहकन चिहुकन थी
डाल-डाल पर
पात-पात में
ममतामयी
एक पुलकन थी
गीत-नृत्य थे
शहनाई थी
रंजित भोर, साँझ सपनीली
सोम ढोलती श्वेत चाँदनी
महकी हुई रात झबरीली
पर अब जैसे
बँधी मुट्ठियों
कोई बड़ा सत्य खोया है।
पंख खोल
उड़ गए चेंटुये
दूर क्षितिज के किसी छोर पर
छोड़ गए
अँजुरी भर आँसू
पलकों की
प्यासी किनोर पर
पंखों में ममता की ऊष्मा
प्राणों में जीवन की धड़कन
तिनका-तिनका बुने नीड़ की
नियति हुई है
बिखरन-बिखरन
पाँखी तो है विहग
दर्द यह
मानव ने ढोया है।

भटक रहा मन परछायीं को
अंधियारों से भरी डगर पर
धरा बहुत छोटी है उनको
और हमें अब दुर्लभ अम्बर
दोनों और ध्रुवों की दूरी
कैसे पास-पास अब लाएँ
परवशता के महासत्य को
और कहाँ तक हम झुठलाएँ
वही काटने को मिलता है
अब तक जो
हमने बोया है।