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क्या ग़जब की ये आशनाई है / चेतन दुबे 'अनिल'
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क्या ग़जब की ये आशनाई है
लौटकर फिर बहार आई है
उड़ गई थी जो बाग की बुलबुल
आज वो फिर से हाथ आई है
हाथ में हाथ देके फिर अपना
रस्म उल्फ़त की फिर निभाई है
चीर कर क्या कलेज़ा देखोगी
आँख फिर क्यों ये डबडबाई है
मुझको आने लगी है फिर हिचकी
क्या उन्हें फिर से याद आई है
मैं तो अब भी फ़िदा हूँ जानेमन!
तुमको ही मुझसे दुश्मनाई है
अपना पत्थर कलेज़ा मत करिए
प्यार की आस से सगाई है