क्या ग़रज़ थी के हवसख़्वार से आगे निकली / निर्मल 'नदीम'
क्या ग़रज़ थी के हवसख़्वार से आगे निकली,
अब के ये दुनिया तो मुर्दार से आगे निकली।
हाय वो शीरीं ज़बां जिससे टपकता था शहद,
फ़िक्र ओ एहसास में तलवार से आगे निकली।
इस तरह बदला ज़माने में मुहब्बत का चलन,
घर की तहज़ीब भी बाज़ार से आगे निकली।
सोचता था कि मुझे दफ़्न वहीं कर देगा,
पर शहादत तो सर ए दार से आगे निकली।
बांध के रख दिया फ़ानूस को तुमने लेकिन,
जब हुई रोशनी मीनार से आगे निकली।
सर पे बाज़ार के इल्ज़ाम लगाऊं कैसे,
अपनी औक़ात ख़रीदार से आगे निकली।
कुछ परिंदों के लिए छांव मयस्सर कर दी,
छत जो घर की मेरे दीवार से आगे निकली।
इक तवायफ़ की तरह आज उड़ाकर आँचल,
फिर हवा हलक़ा ए गुलज़ार से आगे निकली।
इश्क़ में डूब के रहता है सफ़ीना ए नदीम,
मेरी हर मौज तो मंझधार से आगे निकली।