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क्या जलने की रीति शलभ समझा दीपक जाना? / महादेवी वर्मा
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क्या जलने की रीति शलभ समझा दीपक जाना?
घेरे हैं बन्दी दीपक को
ज्वाला की वेला,
दीन शलभ भी दीप-शिखा से
सिर धुन धुन खेला!
इसके क्षण सन्ताप भोर उसको भी बुझ जाना!
इसको झुलसे पंख, धूम की
उसके रेख रही,
इसमें वह उन्माद न उसमें
ज्वाला शेष रही!
जग उसको चिर तृप्ति कहे या समझे पछताना?
प्रिय मेरा चिर दीप जिसे छू
जल उठता जीवन,
दीपक का आलोक शलभ
का भी इसमें क्रन्दन !
युग युग जल निष्कम्प इसे जलने का वर पाना!
धूम कहाँ विद्युत्-लहरों से
है निश्वास भरा,
झंझा की कम्पन देती
चिर जागृति का पहरा!
जाना उज्जवल प्रात न यह काली निशि पहचाना!