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क्या जलने की रीत / महादेवी वर्मा

क्या जलने की रीति शलभ समझा दीपक जाना

घेरे हैं बंदी दीपक को
ज्वाला की वेला
दीन शलभ भी दीप शिखा से
सिर धुन धुन खेला
इसको क्षण संताप भोर उसको भी बुझ जाना

इसके झुलसे पंख धूम की
उसके रेख रही
इसमें वह उन्माद न उसमें
ज्वाला शेष रही
जग इसको चिर तृप्त कहे या समझे पछताना

प्रिय मेरा चिर दीप जिसे छू
जल उठता जीवन
दीपक का आलोक शलभ
का भी इसमें क्रंदन
युग युग जल निष्कंप इसे जलने का वर पाना

धूम कहाँ विद्युत लहरों से
हैं निश्वास भरा
झंझा की कंपन देती
चिर जागृति का पहरा
जाना उज्जवल प्रात न यह काली निशि पहचाना