क्या तुम्हें उपहार दूँ / अमरेन्द्र
क्या तुम्हें उपहार दूँ मैं, जो नहीं यह प्यार दूँ मैं।
मैंने चाहा ही नहीं था मोतियों का घर मिले
सब तरह के सुख लिए त्रेता, कभी द्वापर मिले
मैंने कुछ अंगार माँगा था वो मेरे पास है
तुम कहो तो आज वह अंगार दूँ मैं ।
मोल में चाहत मिली है, जिन्दगी देकर मुझे
यह खुशी भी तो मिली है, हर खुशी देकर मुझे
मेरी दुनिया है यही, दौलत मेरी, जीवन मेरा
हो तुम्हें स्वीकार तो सब वार दूँ मैं।
मैंने फूलों के दलों पर कुछ लिखे हैं छन्द ये
आज चाहूँ खुशबुओं के कलश में कर बन्द ये
छोड़ आऊँ चुपके-चुपके मैं तुम्हारे द्वार पर
युग से संचित मन का हाहाकार दूँ मैं।
यह मेरा जीवन, युगों का एक हाहाकार है
बस रुदन का, आँसुओं का, आह का संसार है
सोचना अब षड्ज स्वर मैं दुख को दीपक राग दूँगा
जब तुम्हारे हाथ में कचनार दूँ मैं।