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क्या तुम मुझको बाँध सकोगे / स्वाति मेलकानी

क्या तुम मुझको बाँध सकोगे
ऐसे
जैसे कली बँधी है
उस पौंधे से
खिलने की
सभी संभावनाओं के बीच।
और बँधी है नदी
धरती से,
बहने की आजादी के साथ।
या
पानी
बँधा है नदी से,
सूरज से आँख मिलाने
और बादल बनकर
उड़ जाने के साहस को
स्वयं में जिलाये हुए।
और बँधा है सूरज
आसमान से
गोले में ही सही
पर
अपने स्वतंत्र अस्तित्व को समेटे हुए।
क्या तुम मुझको बाँध सकोगे
जैसे दूर क्षितिज में
आसमान ने
बाँधा है धरती को
और दोनों के बीच
जगह बची है
जीवन के
खिलने की
बहने की
उड़ने की...