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क्या तुम रुकोगे / सुदर्शन रत्नाकर

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तुम्हें रोकना निरथर्क है
रोक भी लूँ तो
क्या तुम रुकोगे काल
नहीं न
तुम्हारा अनवरत आगे बढ़ना
मुझे पीछे छोड़ जाता है
भूत के गर्त में
तुम खंडों में बँटे हो
और मैं तुम्हारे साथ नहीं
चल पाती
वहीं खड़ी हूँ, आज में
वही जो मेरा है, बस मेरा
अंतर की यह खाई
चुभती है कील सी।
जब तक काया में प्राण हैं
मैं न भूतकाल में हूँ
न भविष्य मेरा है
जीती हूँ वर्तमान के सत्य में
और यह मेरी नियति है
पर मैं इस क्षण को जीती हूँ पूरी तरह,
जीभर कर काल
क्या हुआ जो तुम मेरे साथ नहीं हो।