Last modified on 8 नवम्बर 2020, at 18:12

क्या तू भी ऐसे कभी तड़प उठती है? / रामगोपाल 'रुद्र'

तड़पा देते हैं मुझको तेरे सपने;
क्या तू भी ऐसे कभी तड़प उठती है?
कुछ तेरे तारों भी तिर आता है क्या?
जैसे तू मेरी आँखों में छप उठती है!

तूने जो भूल-भुलैया में डोरी दी,
मैं चलने लगा सहारा तेरा लेकर;
गुण तोड़, छोड़ क्या गई, देख जा, निर्मम!
दे गई मुझे तारे, शशि मेरा लेकर!

तेरी अबूझ इस लीला को क्या बूझूँ?
अचरज क्या, जो सम्मुख भी तुझे न सूझूँ?
विश्‍वास-पक्ष ही जब गिर गया किले का,
मैं तर्कों की दीवारों से क्या जूझूँ!

उफ्! गंध-कीट यह कहाँ छिपा था घाती?
धोई थी पँखुरी-पँखुरी, पाती-पाती!
यों पुन: परीक्षित किया मुझे क्यों डँसकर?
किसका बिगड़ा? तेरी ही तो थी थाती!