क्या देखा है तुमने कभी / अंकिता जैन
क्या देखा है तुमने कभी?
एक जोड़ा
उड़ता हुआ हवा में
भिगोते हुए पंख
करते हुए अठखेलियाँ
बहता हुआ लहर के साथ,
जो उठती है बिन मौसम,
युहीं कभी,
क्योंकि करता है मन उसका मचलने का
और बहा ले जाने का
संग अपने उन जोड़ों को
जो निकले हैं
बहने और मचलने
क्या देखा है तुमने कभी?
एक रूठा हुआ प्रेमी
बैठा है किसी डाल पर
इंतज़ार में प्रेमिका के
जो ला रही हो
उसका पसंदीदा दाना, चोंच में दबाए
लड़ते हुए उस तूफ़ान से
जो निकला है मिटाने को घरौंदे
बिन अनुमान
युहीं कभी
क्योंकि करता है मन उसका तड़पने का
और उखाड़ देने का
उन सारे पेड़ों को
जिनकी टहनियों पर बैठे हैं
रूठे हुए प्रेमी
क्या देखा है तुमने कभी?
एक भटका हुआ बादल
जो बिछड़ गया है, अपनी माँ से
किसी मोड़ पर आसमान में,
जो चला था समंदर से
लेकर उसका गुस्सा
फट पड़ने कहीं,
बिन सावन
युहीं कभी
क्योंकि करता है मन उसका बरसने का
और डुबो देने का
धरती का हर एक कोना
जो छीन रहा है,
समंदर से उसकी जगह
नहीं देखे तो आओ
दिखाती हूँ तुम्हें
उस जोड़े को, उस प्रेमी को, और उस बादल को भी
तुम बन जाना वो प्रेमी, रूठा हुआ
बैठ जाना उस डाल पर
मैं लाऊंगी दाना तुम्हारे लिए
लड़ते हुए तूफान से
फिर डूब जाएंगे हम-तुम
उस बादल की बरसात में
धरती के किसी कोने पर
सिमटकर, लिपटकर एक दूजे में
घेरे बिना समंदर की कोई जगह
और बचा लेंगे ख़ुद को
देखने से
इस धरती की सबसे काली सुबह।