भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्या धरती में ही समा गई / प्रतिभा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीतते रात-दिन वर्ष-मास,
ऋतुयें आतीं ऋतुयें जातीं,
लीपती कुटी सींचती क्यारियाँ
चुन-चुन समिधायें धरती,
धरती की पुत्री कर्मरता, सुख-दुख से होकर निर्विकार,
निन्दा-स्तुति से निर्लिप्त, विलक्षण सहन-शक्ति संयम अपार!

काया सँवराई, हिम आतप, पतझर की शुष्क हवायें सह,
कृश देह और काले केशों में रजत तार!
ऋषि का संरक्षण औ' शिक्षण,
वैदेही का अनुशासन, नियमित योगदान;
कर-तल कठोर, पुत्रों को शस्त्राभ्यास कराती निरलस हो;
सिखलाती अस्त्र-प्रयोग, शास्त्र का अनुशीलन,
विद्या-कौशल औ बुद्धि-प्रखरता दुर्निवार!

फिर आया एक दिवस ऐसा-
हय अश्वमेध का बोँध लिया उन पुत्रों ने,
वीरता सिद्ध कर विजयी हो, अप्रतिम शौर्य का दे प्रमाण,
सीता के चरणों पर शिर धर आशीष लिया करके प्रणाम!
"वह नृप निराश, हत-तेज सैन्य जिसका हारा,
मात आश्रम में आयेगा कुछ विनय करेगा बेचारा!"

हो गये सफल सारे प्रयास,
ऋषि-पिता तुम्हारा वरद हाथ!
उद्देश्य पूर्ण हो गया और असमर्थ न मेरे पुत्र आज!

सीता प्रस्तुत हो गई कि विजित- नृपति को कहनी कौन बात?
केयूर वलय औ कर्ण फूल,
नैहर से आई पियरी तन पर शोभ रही,
कस कर बाँधा सिर पर जूड़ा!
कुछ केश पके हो रजतवर्ण,
कोमलता लुप्त हुई सारी,
कंचन सा तन भी सँवराया,
पर मुख पर छाया तेज प्रखर!

देखते राम झुक गई दृष्टि:
कान में पड़ा संयत मृदु स्वर- मै लव-कुश की जननी सीता,
राजा विदेह की पालित, दशमुख-मन्दोदरि की औरस हूं,
धरती से संरक्षित पुत्री!
क्या मेरे इन पुत्रों ने कुछ अपराध किया?
राजा हैं दंड स्वयं देते, मुझसे क्यों कहना पड़ा, उपस्थित होकर यों?"

कुश बोल उठे 'माँ’ ये राजा?
इनकी सेना तो हमसे रण में हार चुकी!
सिंहासन पर कैसे बैठें?
है अश्व मेध का अश्व हमारे पास बँधा।

'तुम हार गये फिर राम?'
'अपने पुत्रों से हारा! धन्य वीर जननी!
अब सिंहासन इनका है चलें अवधपुर को!

'प्रिय पुत्रों, तुमने पूछा था जो प्रश्न, आज उसका उत्तर
प्रत्यक्ष हो गया यहाँ स्वयं', कैसा उदास सीता का स्वर!
'जाओ, अब ग्रहण करो जो दाय तुम्हारा है'!
'हाँ, पुत्र तुम्हारे, ठीक कहा:
मेरा तो कुछ भी नहीं राम!
तुम राजा, पुत्र तुम्हारे ये, मेरा अब कोई भी न काम!

ये एक धरोहर और सँभालो,
पा लूँ मैं भी मुक्ति आज!
सीता की मुट्ठी बढ़ी दान की मुद्रा में।
अति विस्मित फैला हाथ, राम का अनायास!
आ गई मुद्रिका वही हाथ में, जिस पर अंकित राम-नाम!
जो विरह काल में प्रेम-सँदेशा ले पहुँचे थे हनूमान!

स्तब्ध राम, होकर विमूढ़ देखते रह गये खुले हाथ!
मुख हुआ तेजहत, सुलग रही हो जैसे धुँधुआती बाती!

ये पुत्र और यह मुँदरी थाती थी जिसको अब सौंप चुकी।
मै हुई मुक्त मुक्त, कह कर सीता मुख मोड़ गई।

कुछ स्मृतियाँ, अंकित प्रेम-विरह पूरित सँदेश,
मुद्रिका हाथ में रखे-रखे, अपने में ही खो गये राम
यह अतिशय प्रिय वैदेही को, क्षणमात्र विलग कर से न हुई,
इतने वर्षों के बाद राम को लगी मुद्रिका नई-नई!
कब से उतार दी सोच भरे,
जब दृष्टि उठी
देखा वैदेही वहाँ न थी!

थी अभी यहाँ अब कहाँ गई?
इस ओर और उस ओर दूर तक उसका कोई पता नहीं!

उत्तर-दक्षिण-पूरव-पश्चिम, सब ओर भागते फिरे विकल!
वन में हलचल मच गई कि सीता
गई कहाँ, किस ओर निकल!

हा हंत, खो दिया फिर मैंने,
यह क्या हो गया, अरे यह क्या!
कोई तो बोलो,
मुझे बता दो, कहाँ जानकी, प्रिया कहाँ?
कोई तो बतला दो,
ओ धरती, अनल, वायु जल, ओ अंबर!
अब तो यह दूर करो अंतर!
ले, चलो वहीं,
पूरी हो जीवन कथा वहीं!

वैदेही का पद चिह्नमात्र भी दिखा नहीं।
क्या धरती में ही समा गई,
या लुप्त हुई आकाशों में!
सारा जीवन हो गया व्यर्थ!
घट गया हाय फिर महानर्थ!