क्या नहीं हो रहा दुनिया में / विजय कुमार देव
रोज़ उगता है सूरज
चाँद आता है-सही समय।
लाल किले की प्राचीर से
भाषण होता है तयशुदा समय में
बिलानागा हर राष्ट्रीय-पर्व की पूर्व-संध्या पर |
जुलूस निकलते हैं रोज़
जलसे होते हैं अनवरत
निरंतर आते हैं समाचार टी०वी० में
ठीक-ठीक समय |
आप कहते हैं -दुनिया में कुछ नहीं रखा।
क्या कहते हैं? नहीं बची आपके लायक दुनिया।
आप कहते हैं - मूल्यों का पतन हो गया है ?
जिन मूल्यों पर पैर रख कर
फूल रहे हैं एलीट लोग
आप कहते हैं सब ग़लत है।
भाई जी! ये ही लोग
तय करते हैं आपका भविष्य
हादसों की तिथियाँ तय
फिर मुआवज़ा , कमेटियाँ
और फिर....?
देखो --
बहुत कुछ हो रहा दुनिया में
लोग रिश्वतें खा रहे हैं नियमानुसार बेहिचक
लोगों की दिनचर्या में है
चापलूसी का एक अध्याय
सपनों में है खंडित मुल्क का सिंहासन
सब कुछ तो समय पर सोचा जा रहा है
आप कहते हैं समय की कद्र नहीं लोगों को।
कहाँ रहते हैं?
आँखे खोलो
सब कुछ साफ-साफ
सच, सच घटता जा रहा है
आपके आस-पास ।