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क्या न मुझमें आज वह बल आ सकेगा? / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

क्या न मुझमें आज वह बल आ सकेगा?
प्राण! तेरे मृदु चरण की लघु किरण भी
क्या न यह अज्ञात दुर्बल पा सकेगा?
क्या न मेरी मूक वाणी
छन्द बनकर गा सकेगी?
क्या न मेरी आह नयनों में
उछलकर आ सकेगी?
पूछता हूँ आज तुम से विकल मन की बात अपनी
क्या न जीवन फिर मधुर पल पा सकेगा?
आह अपनी ज्वाल से
जग को जला सकती नहीं क्यों
आह अपनी शक्ति से
हिमगिरि गला सकती नहीं क्यों
किन्तु मेरी आह जग को फिर नयी संजवनी दे
चिर पिपासा को बुझाने क्या न बादल छा सकेगा