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क्या पता था / महेन्द्र भटनागर

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छू रही थी रवि-किरण

ऊँचाइयों को,

सृष्टि की गहराइयों को,

नव-आलोक से परिपूर्ण था

जीवन-गगन !

पहने धरा थी
स्वर्ण के अनमोल अभिनव आभरण,
गूँजते थे हर दिशा में
हर्ष-गीतों के चरण !

क्या पता था —
एक दिन ऐसे अचानक मेघ छाएंगे
बिना कारण
गरज बिजली गिराएंगे !
और हम —
असह उर-वेदना ले
मूक भटकेंगे
अँधेरे में, अँधेरे में !

नियति लेगी छीन
भू-सौभाग्य,
विक्षत कर
महकते फूल !
आँचल में भरेगी निर्दयी,
हा, इस तरह रे धूल !
अन्तर में चुभाएगी
नुकीले शूल !

और हम —
अर्थी उठा विश्वास की
मस्तक झुकाये
शोक से बोझिल हृदय ले
अग्नि-लपटों को समर्पित कर
अकेले लौट आएंगे,
व जीवन भर
विवश हो दोहराएंगे
करुण गीतों के चरण !