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क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा / भरत ओला

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बहुत तीसमारखां
समझने लगा है
अपने आप को
कम्बख्त

तू इसके दुःख में
दुबला न हो
मरता है
तो मरने दे

हो-हल्ला करना
इसकी आदत में शुमार है
बक-बक करता है
तो करने दे

कितना सिर सूज गया है
औकात नही देखता
खुद की
क्या पिद्दी
क्या पिद्दी का शोरबा
बात करे है
खुर्द-बुर्द की

ताफड़े मंच के है
पेट में छाणस<ref>चोकर</ref> नहीं
देखो !

गौर से देखो
मुझे कुछ बदला-बदला लगता है
यह माणस<ref>आदमी</ref>
उस गांव का नही
जो देखते ही
सलाम ठोकता था
हाथ जोड़
पांव धोक देता था
और बतलाए से भी
न बोलता था
अब इसका
हौंसला तो देख
सामने बैठा है
और बड़ाबड़ बोले जा रहा है
कल तक
बात को समझता नहीं था
आज तराजू में
तोेले जा रहा है
मुझे डर है
इसकी नजर
मंच पर है
सोच !
और कोई जतन कर
या तो इसकी आँख फोड़
या
मंच थोड़ा ऊँचा कर

शब्दार्थ
<references/>