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क्या फर्क पड़ता है? / सीमा संगसार
Kavita Kosh से
सज / सँवर के बैठी
वह औरतें
अपनी देहरी पर करती इंतजार
अपने पति या / किसी ग्राहक का
क्या फर्क पड़ता है?
देह तो एक खिलौना है
जो बिकता है सब्जियों से भी सस्ता
सरे आम मंडी में
या / बंद कुंडी में क्या फर्क पड़ता है—-सारे निशान दर्द व जख्म उनके अपने हैं
जिसे बिना शृंगार के वे लगती अधूरी हैं
चंद पैसों के लिए हर रोज दफन होती हैं
उनकी ख्वाहिशें
पर कभी खरीद नहीं पाती
वे अपने सारे सपने फिर भी जीती हैं
वे अपने बच्चों की खातिर करती हैं कामना
पति के दीर्घायु के लिए रख कर करवाचौथ
हर रोज वे करती रहें सोलह शृंगार
और नुचवाती रहें अपनी देह
वे हर हाल में खरीदी या बेची ही जाती हैं
वह कोई दलाल हो या फिर पति
या पिता क्या फर्क पड़ता है?