क्या बताऊँ मैं तुम्हें, उसके घर में क्या देखा / अमरेन्द्र

क्या बताऊँ मैं तुम्हें, उसके घर में क्या देखा
खून मेरा ही हुआ था जो तलाशा, देखा

इक मदारी को नचाती थी बन्दरों की भीड़
जो न देखा था कभी, वह भी तमाशा देखा

पीछे-पीछे मैं चला आया था गुमसुम-गुमसुम
आगे-आगे में अपना मैंने जनाजा देखा

जाने क्या सोच के अक्सर मैं चैंक जाता हूँ
एक टूटा हुआ जबसे है सितारा देखा

कोई हिसाब नहीं इसका मुझे रखना है
कौन अपना था यहाँ, किसको पराया देखा

मैं अपनी प्यास लिए दरिया तलक आया था
लौट आया जो सभी घाटों को प्यासा देखा

जो कभी काफिलों के साथ चला करता था
आज अमरेन्द्र को उस राह पे तनहा देखा।

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