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क्या बात कहें हम मेले की? / शैलेन्द्र सिंह दूहन
Kavita Kosh से
क्या बात कहें हम मेले की?
इस झंझट और झमेले की।
जात-धर्म की आग कहीं है?
खून सना अनुराग कहीं है?
सहम गये सब परवत गुमसुम
औकात बढ़ी अब ढेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
सज़दों की बुनयाद मिटी है
मानस की मर्याद घटी है,
मंदिर-मस्जिद नंगे हो कर
हैं भीड़ बढ़ाएं रेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
चौपालों की चौखट भड़की
दालानों की अस्मत तिड़की,
दूध-दही के झारों की भी
अब शान नहीं दो धेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
कैसी अद्भुत फसल फली है?
अहसासों की परत जली है,
बूढ़ी सदियाँ गाली खाएं
रे! आज समय को झेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?
बलिदानों के ढेर बिके हैं
शबरी के सब बेर बिके हैं,
द्रोण गुरू फिर सिर खुजियाएं
सुन डाँट-डपट निज चेले की।
क्या बात कहें हम मेले की?