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क्या बोलें / सांध्य के ये गीत लो / यतींद्रनाथ राही
Kavita Kosh से
क्या बोलें
क्या चुप रह जाएँ
ऐसा ही तो नहीं चलेगा!
मन तो भरा नहीं है
अब भी
बैठो पास
बात कुछ करलें
कुछ अपने मन की
तुम कह दो
हम अपने मन की
कुछ कह लें
आज ओढ़ ले
और अँधेरे
कल से
सूरज नया उगेगा!
कैसा सोच
कहाँ असमंजस
जब तक साँसे
तब तक चलना
आशाओं के तन्तु न टूटें
विश्वासों पर
पग-पग बढ़ना
अगड़ाई लेगा जब निर्झर
जड़ी भूत पाहन
पिघलेगा!
हरी गाछ
सन्ध्या सिन्दूरी
होती विलय
धरा अम्बर में
धरो हाथ में
रिक्त हथेली
साँसों को
साँसों के स्वर में
गीत सृष्टि में
प्राण विलय यह
बनकर नयी
गन्ध छलकेगा!