क्या भाषा औरत है? / किशोर काबरा
कागज के बिस्तर पर
किसी कलमधारी के सामने
भाषा
तीन तरह से
अपने कपड़े उतारती है।
जब भाषा
एक वैश्या की तरह
अपने कपड़े उतारती है
तो
यार को
वासना की भट्टी में
झौंककर
उसका सारा रस कस चूस लेती है
और
किसी नाली के घिनोने कीचड़ में
एक छिलके की तरह
सड़ने को फैंक देती है।
उस समय कलम धारी
कविता नहीं करता
कय करता है
गंदगी करता है।
ऐसी कविता उसे धन नहीं देती
यश नहीं देती
हाँ चौराहों पर चर्चित करती है।
वह
कविता इश्तहार और झण्डा बना देती है
और
कवि को
लोफर और गुण्डा बना देती है।
जब भाषा
एक पत्नी की तरह
अपने कपड़े उतारती है
तो
अपनी अस्मिता पति को सौंप कर
उसके अस्तित्व को अपने भीतर
बीज की तरह उतार लेती है
और अंकुर की तरह पैदा करती है
पीढ़ियों तक फूल देती है,
फल देती है,
अगली फसल के लिए बीज देती है
उस समय कलम धारी
दोनों हाथों से बही चौपड़े लिखता है
और टकसाल उगलता है
ऐसी कविता उसे यश नहीं देती
हर्ष भी नहीं देती
हाँ खूब धन देती है।
वह
कविता को धंधा और व्यापार बना देती है,
और कवि को
सेठ साहूकार बना देती है।
लेकिन
जब भाषा
माँ की तरह कपड़े उतारती है
तो नाली में पड़े अपने बेटे को
सीने से लगाती है,
चूमती है, दुलारती है,
सजाती है, सँवारती है।
अपना मीठा अस्तित्व पिलाकर
मुर्दे में भी ममता उतारती है।
उस समय माँ
नंगी होकर भी
नंगी नजर नहीं आती
बेटा नंगा होकर भी
नंगा नहीं दीखता।
उस समय
वह कविता नहीं लिखता
कविता उसे लिखती है
ऐसी कविता उसे धन नहीं देती
साधन नहीं देती
हाँ, धन्य कर देती है।
शाश्वत यश से कवि की
झोली भर देती है
वह
कविता को ऋचा का मंन्त्र बना देती है
और
कवि को
ऋषि की तरह स्वतन्त्र बना देती है।
भाषा सचमुच औरत है
अब तुम चाहे उससे
व्यभिचार करो
चाहे दुलार करो
भाषा औरत है
अब तुम चाहे उसे
गाली की तरह सुनो सुनाओ
चाहे चेक की तरह भुनाओ
चाहे मन्त्र की तरह गुनो गुनगुनाओ
भाषा औरत है।