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क्या मेरी राह यहीं तक थी? / बलबीर सिंह 'रंग'
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क्या मेरी राह यहीं तक थी?
मैं सोचा करता हूँ निशि दिन,
क्या था अब और गया क्या बन;
मन चाही मंजिल पाने की,
क्या चंचल चाह वहीं तक थी?
क्या मेरी राह यहीं तक थी?
कांपें गिरि धरिणी और गगन,
पर हिल न सका मानव का मन;
मेरे दर्दीले गीतों में,
क्या करुण कराह यहीं तक थी?
क्या मेरी राह यहीं तक थी?
दुख का अनुभव करना ही दुख,
सुख का अनुभव करना ही सुख;
मेरी नजरों में संसृति के,
सुख दुख की थाह यहीं तक थी?
क्या मेरी राह यहीं तक थी?