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क्या मैंने भूल की / उर्मिल सत्यभूषण
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क्या मैंने भूल की
जो स्वतंत्रता की चाह की
अपने वजूद को पहचान दी।
बाहर प्रखर प्रतिभा की आब थी
कौन बर्दाश्त करता
भीतर धधकती आग थी
मेरे पिंजरे की सलाखों
को बार-बार जलाती
मेरे वजूद का लहुलूहान पंछी
पंख फड़फड़ाता, कटे पंखों से भी
उड़ान की गगन चुम्बी
चाह पूरी कर लेता
और फिर लौटकर
उसी कैद में बंद हो जाता
यह राह मैंने खुद चुनी थी
जाने क्यों! जाने क्यों!!