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क्या यही प्यार है? / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल

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हमने ख्वाब बुने अलग-अलग
पर किसे पता था
तकदीरें उलझ जायेंगी
जो चाहा था हमने
उसके होने पर
क्यों असमंजस में हैं?
क्यों ठिठके हैं कदम
कहीं दूर निकल जाने के लिए?
क्यों ठिठके हैं कदम
एक-दूसरे को अपनाने के लिए?
ये कृपा है या सजा
कि मिलकर भी नहीं मिल पाते
दर्द सहते, आँसू बहते हैं
क्या यही प्यार है?
कैसे सँभालूं
इस उछलती बावली नदी को
आँखों में, बालों में
जेबों में घुसी जाती है
कैसे संभालूँ
प्यार के इस मुक्त प्रवाह को
साथ बहने के अलावा
अब क्या चारा है
कुछ बचाकर नहीं रखा
लौटने के लिए
दूर आ गये बहकर
नदी की धारा में
मिलेगी जो अनंत सागर में।