भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या रब्त एक दर्द से बनते चले गए / जलील आली
Kavita Kosh से
क्या रब्त एक दर्द से बनते चले गए
जंगल में जैसे रास्ते बनते चले गए
कड़ियाँ कड़ी क़ुयूद की बढ़ती चली गईं
हीले रह-ए-नजात के बनते चले गए
होंटों पे खिल उठा तो हुआ दाग़-ए-दिल दुआ
क्या क्या सुख़न के सिलसिले बनते चले गए
किस सूरत-ए-सबात पे ठहरी निगाह-ए-दिल
इक रक़्स-रौ में टूटते बनते चले गए
बोते रहे लहू के दिए हम ज़मीनें में
ख़ुर्शीद आसमान पे बनते चले गए
‘आली’ मुक़ाबले का न कोई अदू रहा
हम आप अपने दूसरे बनते चले गए