भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्या लिखूँ कैसे लिखूँ लिखने के भी क़ाबिल नहीं / रविन्द्र जैन
Kavita Kosh से
क्या लिखूँ कैसे लिखूँ लिखने के भी क़ाबिल नहीं
यूँ समझ लीजे कि मैं पत्थर हूँ मुझ में दिल नहीं
क्या लिखूँ कैसे लिखूँ ...
हर क़दम पर आप ने समझा सही मैं ने ग़लत
अब सफ़ायी पेश कर के भी कोई हासिल नहीं
यूँ समझ लीजे कि मैं ...
इस तरह बढ़ती गयी कुछ रास्ते की उलझने
सामने मंज़िल थी मैं कहती रही मंज़िल नहीं
क्या लिखूँ कैसे लिखूँ ...
मैं ये मानूँ या न मानूँ दिल मेरा कहने लगा
अब मेरी नज़दीकियों में दूरियाँ शामिल नहीं
क्या लिखूँ कैसे लिखूँ ...