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क्या सब इन्सान जगे हैं / कमलेश द्विवेदी

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दिल में फिर अरमान जगे हैं.
सोये थे मेहमान जगे हैं.

गाँवों में सूरज से पहले,
खेत जगे खलिहान जगे हैं.

उनके दोष छिपाने खातिर,
दीन-धरम-ईमान जगे हैं.

कृष्ण अभी पैदा हों कैसे,
जेलों के दरबान जगे हैं.

जब-जब आँख तरेरी उसने,
बस्ती के शमशान जगे हैं.

जगते तो दिखते हैं सारे,
पर क्या सब इन्सान जगे हैं.