क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा
घिरी निराशा, नाव फँसी मझधार है,
सभी दिशाओं में बस हाहाकर है।
तूफानों का ज़ोर, किनारा दूर है,
चूर नशे में, बेसुध खेवनहार है॥
कर्णधार है नौका स्वयं डुबो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
दीप जला, पर घर आलोक-विहीन है,
लक्ष्मी का आराधक, भिक्षुक दीन है।
कहने को मौसम बसन्त का है मगर,
सारा उपवन पतझर से ग़मगीन है॥
कौन करे रखवाली? माली सो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
दानवता को मिला अमित उल्लास है,
मानवता का चेहरा किन्तु उदास है।
नवयौवन का रंग चढ़ा अन्याय पर,
चौराहे पर पड़ी न्याय की लाश है॥
दलित झूठ से सत्य सिसक कर रो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
देशभक्ति रत सिंहासन की चाह में,
ध्यान कहाँ से हो दुखियों की आह में।
सुमनों से पथ पूरित भ्रष्टाचार का,
शूल बिछे हैं सदाचार की राह में॥
निर्धन दुख का बोझ निरन्तर हो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
जो बगिया का रक्षक पहरेदार है,
लूट रहा बन आज वही बटमार है।
गन्ध सुयश की बँटि कौन बयार को!
जब गुलाब ही बन बैठा खुद ख़ार है॥
भाग्य विधाता बीज अनय के बो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
अधिकारी याचक, ठग मालामाल हैं,
कव्वे भी बन बैठे आज मराल हैं।
दम भरते देखो कानन के राज का,
ओढ़ भेड़िये पंचानन की खाल हैं॥
सिंह स्वयं है स्वाभिमान को खो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
लगा कहीं हरदम होठों से जाम है,
नई खुशी लेकर आती हर शाम है।
कहीं भूख की पीड़ा से लाचार हो,
बचपन होता सड़कों पर नीलाम है॥
भावी भारत आँसू से मुख धो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!
लगा कहीं पर दौलत का अम्बार है,
हर दिन होता वहाँ नया त्यौहार है।
दो रोटी के लिए कहीं पर भीड़ में,
यौवन बिकता आज सरे-बाज़ार है॥
आँखों के पानी से चीर भिगो रहा।
क्या सोचा था पर देखो क्या हो रहा!