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क्या सोच के वो शातिर ये चाल चला होगा / कांतिमोहन 'सोज़'
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1984 के सिखविरोधी दंगों से दुखी होकर लिखी गई
क्या सोचके वो शातिर ये चाल चला होगा।
हर बार रसन<ref>रस्सी</ref> उसकी और अपना गला होग।।
क्यूँ कोई नहीं चीख़ा क्यूँ कोई नहीं बोला
आख़िर तो वो हंगामा कुछ देर चला होगा।
हाँ ख़ून का रिश्ता था भाई ने भला कैसे
भाई का लहू अपने चेहरे पे मला होगा।
ख़ंजर अगर उगते हैं इंसान के पहलू से
तो आग का दरिया भी पलकों में पला होगा।
लो हाथ से नाख़ुन भी बरहम<ref>अलग</ref> हुए जाते हैं
क्या ऐसी ख़ुदाई में बन्दे का भला होगा।
चलती रही गर यूँ ही शैतान की तैयारी
भारत में न कुछ होगा बस एक ख़ला<ref>शून्य</ref> होगा।
कोई मुझे बतलाए तब ख़्वाब पे क्या बीती
उस रोज़े-क़यामत जब सूरज न ढला होगा॥
शब्दार्थ
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