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क्या होगा भला तुम को इंसाफ़ गवारा भी / 'साग़र' आज़मी

क्या होगा भला तुम को इंसाफ़ गवारा भी
जब ख़ून में डूबा हो ख़ुद हाथ तुम्हारा भी

तुग़्यानी भी दरया भी लहरें भी किनारा भी
तुम चाहो तो रूक जाए बहता हुआ धारा भी

अब जिस्म के सहरा में दिन रात तड़पता है
इक ज़ख्मी परिंदा है एहसास हमारा है

किस तरह जिए कोई तन्हाई के सहरा में
जब छीन लिया जाए यादों का सहारा भी

मैं जुर्म-ए-मोहब्बत का तन्हा तो नहीं मुजरिम
कुछ दिल का तकाजा था कुछ उस का इशारा भी

दिल वालों को ये दुनिया सूली पे चढ़ाती है
मुमकिन है यही हो अब अंजाम हमारा भी

‘सागर’ उसे पा कर मैं इतराऊँ भी क्या ख़ुद पर
सौ बार यही बाज़ी मैं जीत के हारा भी