भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्यूँ ज़मीनों-आसमानों के इशारे मौन हैं / सूरज राय 'सूरज'
Kavita Kosh से
क्यूँ ज़मीनों-आसमानों के इशारे मौन हैं।
हर नज़र मुहताज है हरसू नज़ारे मौन हैं॥
नाख़ुदा की लाश औ पतवार ऊपर आ गयी
पर सवाले-नाव पर लहरें-किनारे मौन हैं॥
सामने सबके ज़बुाँ काटी गई सच्चाई की
फ़लसफ़े उपदेश किस्से सब बेचारे मौन हैं॥
चाशनी की है अदालत मुजरिमो-मुंसिफ़ शकर
अश्क जो मज़लूम हैं लेकिन हैं खारे, मौन हैं॥
उँगलियों से बात अब होने लगी मोबाइल पे
लफ़्ज़ लहजा और कहन किस्मत के मारे, मौन हैं
कर रहे हैं ज़ ुल्ु म सीना ठोंक के जो हैं बुरे
जो भी अच्छे लोग हैं बस्ती के सारे, मौन हैं॥
आसमां पर थूक के जाता है कोई सरफिरा
सर झुके हैं चाँद-"सूरज" के सितारे मौन हैं॥