भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

क्यूँ नहीं हो रोशनी पर सख़्त पहरा आज भी / प्रफुल्ल कुमार परवेज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्यूँ नहीं हो रोशनी पर सख़्त पहरा आज भी
तख़्त पर बैठा हुआ है जब अँधेरा आज भी

आजभी तो लग रही हैं बाज़ियाँ शतरंज की
आदमी है आदमी के हाथ मोहरा आज भी

जाल चाहे बह गए हों तेज़ मौजों के तहत
उनके अन्दर तो मचलता है मछेरा आज भी

गो सरे बाज़ार कब के हो चुके नीलाम अब
आदतन हम कर रहे हैं तेरा मेरा आज भी

हर किसी के पंख कट कर रह गए इस दौर में
उड़ गया है शान से फ़स्ली बटेरा आज भी

फ़र्क ये है रात के हाथों की कठपुतली है वो
वर्ना होने को तो होता है सवेरा आज भी