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क्यूँ न अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे इतराती हवा / आबिद मुनावरी

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क्यूँ न अपनी ख़ूबी-ए-क़िस्मत पे इतराती हवा
फूल जैसे इक बदन को छू कर आई थी हवा

यूँ ख़याल आता है उस का याद आए जिस तरह
गर्मियों की दोपहर में शाम की ठंडी हवा

और अभी सुलगेंगे हम कमरे के आतिश-दान में
और अभी कोहसार से उतरेगी बर्फ़ीली हवा

हम भी इक झोंके से लुत्फ़-अंदोज़ हो लेते कभी
भूले-भटके इस गली में भी चली आती हवा

एक ज़हरीला धुआँ बिखरा गई चारों तरफ़
सब को अंधा कर गई ऐसी चली अंधी हवा

उस ने लिख भेजा है ये पीपल के पत्ते पर मुझे
क्या तुझे रास आ गई बिजली के पंखे की हवा

क्यूँ कर ऐ 'आबिद' बुझा पाता मैं अपनी तिश्नगी
मुझ तक आने ही से पहले हो गया पानी हवा