भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्यूँ फिर दिले-मफ़लूज में हरकत-सी हुई है / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
क्यूँ फिर दिले-मफ़लूज में हरकत-सी हुई है I
क्या अबके मसीहा ने मेरी बाँह गही है II
बुनियाद नशेमन की उसे कैसे बना लूँ,
एहसास की वो शाख़ अभी काँप रही है I
अल्फ़ाज़ के पकड़ाई में आए कि न आए
फूलों की वो टहनी जो मुझे छेड़ गई है I
सोचा है कि मालिन से कभी कहके तो देखूँ
जो फूल नहीं हैं उन्हें क्यूँ तोड़ रही है I
क्यों ज़र्द नज़र आए मुझे जेठ का सूरज
क्या सोज़ के आँगन पे कोई शाम झुकी है II