भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्यूँ लाल हो रहा है यह आसमान देखो / पुरुषोत्तम प्रतीक
Kavita Kosh से
क्यूँ लाल हो रहा है यह आसमान देखो
धरती नहीं रहेगी यूँ बेज़ुबान देखो
बादल कहीं फटा है बिजली कहीं गिरी है
कोरी शरारतों का यह संविधान देखो
माहौल घिर गया है बेसब्र आँधियों से
बरबाद हो न जाए अपना जहान् देखो
चेहरे लुटे-पिटे से आँखें फटी-फटी-सी
डर ने बना दिए हैं गहरे निशान देखो
आचार-संहिताएँ जेबें बनी हुई हैं
कपड़े बने हुए हैं सबसे महान् देखो