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क्यों? / पल्लवी मिश्रा

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ऐसा क्यों होता है
बार-बार-
कि हम जिन
खुशियों के लम्हों का
करते हैं बेसब्री से इन्तजार-
वे आती तो हैं,
और दिल में ढेरों उम्मीदें
जगाती तो हैं;
लेकिन अचानक हाथों से
यूँ छूट जाती हैं
जैसे पतंग से लगी डोर
फिर कहाँ मिलता है
उसका कोई ओर-छोर
किसी दरख्त में उलझकर
इक झटके से टूट जाती है
अँधेरों के साए में ही अगर-
तय करना था अन्तहीन सफर-
तो रौशनी की चमक दिखाई क्यों?
तिश्नगी मिटाने को
बूँद बरसाना नहीं था
तो सावन की घटा छाई क्यों?
खुशियों की झूठी उम्मीद दिलाकर
अगर फिर से
आँसुओं के सागर में ही डुबाना था-
तो ऐ मेरी तकदीर के मालिक।
मुझे तैरना तो सिखाना था।