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क्योंकर यहाँ तुम्हारी तबीयत बहल गई / सफ़ी लखनवी
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क्योंकर यहाँ तुम्हारी तबीयत बहल गई।
इतनी ही ज़िंदगी हमें ऐ खिज़्र! खल गई॥
जब एक रोज़ जान का जाना ज़रूर है।
फिर फ़र्क क्या वह आज गई, ख्वाह कल गई॥
जब दम निकल गया ख़लिशे-ग़म भी मिट गई।
दिल में चुभी थी फाँस जो दिल से निकल गई॥