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क्योंकि आदमी मछली नहीं होता / प्रकाश मनु

कब तक हमारे कंधों पर
करतब करती रहेंगी
कुरसियां,
और हम हांफते रहेंगे
वादों और नारों के
गंधाते दलदल में?

विदूषकाना मुखौटों में
गलियों, चौराहों पर मजमा लगाते
बौनों के दल के दल,
चंद रंगीन लेबल
झंडे और डंडे और मुस्टंडे-
कब तक इन्हें छाती से लगा रखें
लोकतंत्र की उपलब्धि समझकर?

यह सही वक्त है
खादी के भकाभक पुतलों से
सवाल पूछने का-
कि तुम्हारी जोकरनुमा टोपियों
में ही नहीं छिपी क्या
हमारी दोहरी गुलामी की वजह?

पैरों के नीचे की लाचार घास
या चूस कर फेंकी गई
गुठली-
इसी को तुम कहते हो
‘आम आदमी’-
जो तुम्हारे भाषणों में/बार-बार आता है?

लेकिन, सुनो,
मैं इनकार करता हूं
तुम्हारी मसीहाई से,
झूठ के चिकने परों पर
कब तक उड़ोगे तुम?

बंबइया एक्टिंग के मुहावरे
और लाटरी के नुस्खों का
हरा-भरा सपना-
यह भविष्य के सवालों का जवाब नहीं है

हां, तुम्हारे हाथों में
यह एक ऐसा जाल है जिसमें
हर मछली को
अलग-अलग खरीदे और काटे जाने
की पूरी सुविधा है

लेकिन यहीं तुम भूलते हो-
क्योंकि आदमी मछली नहीं होता
कि उसे हर कांटे में
अटका लिया जाए!

कल जब तपेगा सूरज
पिघलेगी बरफ
छंटेगा कुहासा,
तब आखिरकार टूट-टूट कर
बिखरेगा
झूठ के ताने-बाने से बुना तुम्हारा चक्रव्यूह।