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क्यों ऐसा होता है साथी ? / नागेश पांडेय ‘संजय’

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अनायास अनचीन्हा कोई ,
मन कुटिया में बस जाता है।
निर्गंधी जीवन-बगिया में,
भर सुरभित मधुरस जाता है।
उर-आँगन से अवसादों को-
ज्यों बुहार जाता है कोई ,
बिखरे-बिखरे से जीवन को,
ज्यों सँवार जाता है कोई ।
दिवस बीतता भाग-भागकर,
मन छवि को मचला करता है।
रैन बीतती जाग-जागकर,
सुधि का दीप जला करता है।
उर के चोर जागते दोनों,
क्या कोई सोता है साथी ?


वेद- ऋचाओं सी पावन जब,
बात किसी की लगने लगती।
भरमाया सा रहता है मन,
अपनी ही सुधि ठगने लगती।
क्यों उसकी त्रुटियाँ भी लगने-
लगतीं गंगा-जल-सी पावन ?
क्यों अक्षम्य अपराध भी हमें,
लगने लगते हैं मनभावन ?
क्यों करता मन कर दें उस पर,
हम अपना सर्वस्व निछावर ?
क्यों अव्यक्त सुख मिल जाता है,
उसे एक क्षण हर्षित पाकर ?
स्वत: पल्लवित प्रीति-विटप को-
क्या कोई बोता है साथी ?
क्यों ऐसा होता है साथी ?


श्वास-श्वास पर लिख जाता है,
ना जाने क्यों नाम किसी का ?
नयन-झील में तैरा करता,
रूप-हंस अभिराम किसी का !
क्यों कोई इतना भाता है ?
क्यों ऐसे मन जुड़ जाता है-
ह्रदय किसी का-श्वास किसी की,
अधर किसी के-प्यास किसी की,
भाव किसी के-बयन किसी के,
नींद किसी की-नयन किसी के,
पैर किसी के-राह किसी की,
दर्द किसी का-आह किसी की,
चोट किसे लगती है साथी,
मन किसका रोता है साथी !
क्यों ऐसा होता है साथी ?