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क्यों खुद को तड़पाती हो / तारकेश्वरी तरु 'सुधि'
Kavita Kosh से
सावन-पतझड़ की बातों में
क्यों खुद को तुम उलझाती हो
छँट जाएगा जीवन का तम
नाहक खुद को तड़पाती हो ।
मैं तेरे उर की पीड़ा से ,
हूँ तनिक नहीं अनजान सखी ।
कुछ दिन इसको अपनाकर जी ,
ये बात जरा बस मान सखी।
है पीड़ा आज नई तेरी,
तब सहन नहीं कर पाती हो ॥
सावन पतझड़ की...............
नित हूक ह्रदय में उठती है ,
रातें भी सँग- सँग जगती है ।
लरजे़ ये लब ख़ामोश ह्रदय,
आँख़ें चुपके से बहती हैं।
मैं जानूँ तुम सारे आँसू
पीड़ा सारी पी जाती हो ।
सावन,पतझड़ की...........
ये जीवन बहता पानी -सा,
चुन लेगा खु़द अपनी राहें ।
जो गुज़र चुका तू भूल उसे ,
नव सपने फैलाते बाँहें ।
निज को झूठी उम्मीदों से ,
तुम आख़िर क्यो बहलाती हो ?
सावन पतझड़ की................