भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
क्यों चुराते हो देखकर आँखें / दाग़ देहलवी
Kavita Kosh से
क्यों चुराते हो देखकर आँखें
कर चुकीं मेरे दिल में घर आँखें
ज़ौफ़ से कुछ नज़र नहीं आता
कर रही हैं डगर-डगर आँखें
चश्मे-नरगिस को देख लें फिर हम
तुम दिखा दो जो इक नज़र आँखें
कोई आसान है तेरा दीदार
पहले बनवाए तो बशर आँखें
न गई ताक-झाँक की आदत
लिए फिरती हैं दर-ब-दर आँखें
ख़ाक पर क्यों हो नक्शे-पा तेरा
हम बिछाएँ ज़मीन पर आँखें
नोहागर कौन है मुक़द्दर पर
रोने वालों में हैं मगर आँखें
दाग़ आँखें निकालते हैं वो
उनको दे दो निकाल कर आँखें