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क्यों जुबां पर मेरी आ गयी हैं प्रिये / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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क्यों ज़ुबाँ पर मेरी आ गयी हैं प्रिये
थीं छुपानी जो बातें, कही हैं प्रिये
तेरी आमद से गुलशन महकने लगा
कलियाँ हर शाख़ की खिल उठी हैं प्रिये
मेरे जीवन में खुशियाँ तेरे संग ही
देखते-देखते आ गयी हैं प्रिये
यक-ब-यक बज़्म में आपको देखकर
सब की नज़रें उठी की उठी हैं प्रिये
ग़म नहीं दर खुले ना खुले अब कोई
शुक्र है, खिड़कियाँ तो खुली हैं प्रिये
आँसुओं की लगा दी अभी से झड़ी
दास्तानें कई अनकही हैं प्रिये
दौरे माज़ी की बातें भुला दे 'रक़ीब'
अब तलक दिल में जितनी बची हैं प्रिये